रविवार, 5 अप्रैल 2015

मगही साहित्य ई-पत्रिका अंक-१६

मगही साहित्य ई-पत्रिका अंक-१६
मगही मनभावन
मगही साहित्य ई-पत्रिेका
      
वर्ष - ५              अंक १६          अप्रैल-2015                
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संपादक   --- उदय कुमार भारती
प्रकाशक  --- हिन्दी-मगही साहित्यिक मंच शब्द साधक
                      हिसुआ, नवादा (बिहार)
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ई अंक में
दू गो बात.......
कहानी
आवइत हथिन राजा अनंत कुमार सिंह
कह देहीं हल- जयनंदन सिंह

कविता-कियारी
झंडा गीत नागेंद्र शर्मा बंधु
कहां गेल ऊ दिन बचपन के रामचंद्र
बिहारी भैया शफीक जानी नादां
हो गजब समइया आल अभी परमानंद
बिलायती बोली प्रवीण कुमार पुटूस
धरम राम पारिख
                                           अजी! सुन्नऽ हऽ! -  डॉ. भागवत प्रसाद

मगह के आयोजन

राम प्रसाद सिंह पुरस्कार समारोह आउ किताब के लोकार्पण
आलोचना सहइ के क्षमता रखथिन साहितकारः  प्रो. तरूण
रचनाकार के समर्थ द्रष्टा होवइ के चाहीः नरेन
पार्वती पहाड़ पर विरासत बचाओ अभियान आउ मगही काजकरम
रूपौ में होल कवि सम्मेलन
साहितकार वीणा मिश्रा के सम्मान
विविध
पत्रिका से जुड़ल जरूरी बात
निहोरा

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दू गो बात....
  मगही मनभावन के 16वां अंक अपने सभ्भे के समर्पित करइत जरी सकुचा रहलूं हे। कय गो बाधा आउ परेशानी से अंक अनियमित हो जा हइ। लेकिन हम अगला अंक जल्दीये दे देबे के संकल्प के साथ ई अंक अपने के सौंप रहलिए हऽ। आशा हइ ई अंक के भी अपने सउ ओसहीं अपनइभो जइसे सउ अंक के हुलास से अपनइलहो। अपने सउ से सुझाव और रचना के आशा रहऽ हइ. सुझाव आउ रचना भेजे के बार-बार निहोरा करऽ हिअइ।
                 
                                                        अपने के
                                                                                                     उदय कुमार भारती
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कहानी

आवइत हथिन राजा
                            अनन्त कुमार सिंह
 रात के सात-आठ बजे के बेरा आउ ई किसिम के अन्हरिया बाप रे। लगइत हे कि कोइलवरी के जकड़ल नाली आसमान में फयला देल गेल हे आउ काजर से लीप देल गेल हे धरती के। ऊपर से रह-रह के बरखा के फुहार ऊ भी जाड़ा के मौसम में।
 तबो मयदान आलम से खचाखच भरल। तनीए देर पहिले अइसन भीड़ हल कि सांस लेवे में दिक्कत होइत हल। आउ ऊ भीड़ तीन बजे दिन से हल।
 आउ सब आस छोड़ के गोल के गोल लवर रहल हल लोग। राजा जी के आवे ल हलइन। भाई आझ के राजा तो मुख्यमंत्री चाहे मंत्री ही हथी न मुख्यमंत्री के भाषण सुने खातिर ई भीड़ जुटल हलई। आउ दूसर बात ई भी हलई कि गरीब-गुरबा लोग के बोलावल गेल हलई। ऊ लोग के कहल गेलई हल कि राजा जी अपन हाथ से कमल, चदर बाटथी, लाल कार्ड देथई आउर रूपिया पइसा लुटवथई....। बाकी अब तक न पहुंचलन राजा जी।
 अब खाली हो रहल हे मयदान। बाकिर अभियों मंच पर बइठल लोग बइठले हथई आउ कुछ लोग जहां-तहां आस लगयले बइठल हलथी।
 लोग मयदान में कान अड़यले, आंख चिहारले राजा जी के दरसन खातिर बइठल हलथी।
 लोग मयदान में कान अड़यले, आंख चिहारले राजा जी के दरसन खातिर बइठल हलन।
 ‘‘सभ कोई चल गेलथी का?’’ चल्हवा के मेहरारू पूछलक।
 ‘‘कोई जाइत हे तऽ जाए दऽ। जब हमनी इहां से बड़का मोटरी बांध के जइबई तऽ देख के लोग तरसतन।’’ चल्हवा जवाब देलक।
 ‘‘अगे मइया जोर से बुनी-पानी आवइत हई बिलटुआ के बाबू। उठ-उठ अब इहां से डेरा खंभा कबाड़ऽ’’, अकबकाएल बोललक मेहरारू। चल्हवा भी गौर कयलक। बरखा तऽ करिया नाग नियन सरसरायल बढ़ल आवइत हल आउ अब तऽ देह पर बुनी गिरे लगल हल। तनीए देर में आदमी भींज के बोथा हो जयतन।
 ‘‘चल....चल गाछ के नीचे, आड़ लेल जाओ’’, चल्हवा कहलक।
 ‘‘सभ बाल-बच्चा के लेके कइसे जायल जइतई?’’ मेहरारू कहलक।
 ‘‘माथा नीचे आउ गोड़ उपरे....अरे कुलछनी ई भी पूछे के बात हे? कुछ के तू लाद ले, कुछ के हम आउ बाकी के हमनी दुनो हाथ से पकड़ लेब। फिन टो-टा के गाछ भीरून पहुंच जबई....एकरा में तूल कहां हई?’’ चल्हवा कहलक।
 गाछ तक पहुंचते-पहुंचते देह अकड़ गेलइन। दांत किटकिटावे लगलन दुनो। झमाझम बरखा होइत हल। बरखा के धार छतनार के पार कर जाइत हल।
 ‘‘हुंह आग लगे राजा के कम्बल में- पूड़ी-बुनिया में, चूल्हा में जाए उनकर राज.... हमरा न चाहीं कुछ। ए बिलटुआ के बाबू। इहां तो बरखा जान ले लेतई....चल, चल अपन घरे।’’ मेहरारू के खीस आउ लचारी समझइत हल चल्हवा।
 ‘‘तनी बरदास कर बेदामी....जब एतना देर ठहर गेलऽ तऽ तनी आउ ठहर जायल जाव। रूके द बरखा बेदामी....रूके द....।’’ चल्हवा अपन मेहरारू बेदामी के समझावइत हल बाकिर ओकरो मन अकबकाइत हल।
 ‘‘ओह बड़ा बेकार भेल। चार घर के नाली साफ कर देती हल, कुछ घर के टंकी उड़ाह देती हल तऽ केतना पइसा मिल जायत हल।’’ बेदामी दांत किटकिटइते कहलक। 
 ‘‘
अरे बेदामी का करबऽ? देख न केतना लूल-लांगड़ आउ कोढ़ी-काबर निराश लउट गेलन। दिन भर मांगतन, ऊ भी छूटल। अब तऽ कम्बल मिलतो न। कम्बल तऽ गूलर के फूल हो गेल। बाकिर सोचऽ.... का जनी अबधुर राजा आ जथी आउ कम्बल बांचे लगतथी तऽ हमनी के बड़का मोटरी हो जायत। बेकती-बेकती के ओढ़े-बिछावे से भी जादे। पांच बेटा, दू बेटी, आउ दू लोग हमनी। नौ ओढ़े के, नौ बिछावे के मिल जइतई तऽ जिनगी भर सोचऽ न पड़तई’’, चल्हवा कहलक।
 ‘‘हुंह। खूब मनपोलाव बना लऽ....न अथु राजा। भला ई बरखा में बहरी निकलतथी? ऊ तऽ पी-पा के किला में सुख भोगइत होथी। अभी उनखा देस-दुनिया सुझतइन?’’ बेदामी कहइत हल बाकिर कभी-कभी ओकरो लगइत हल कि का जनी राजा आ जथी तऽ एतना देर के तपस्या सुफल हो जतई।
 ‘‘अरे बेदामी हमरा लगइत हे कि आउ लोग भी मयदान में हथी.... हां....हां....हइए हथी....। सुनऽ चुप हो जा....लोग सुना देखके चल जथी, तब हमनी के बेसी मिलत....।’’
 ‘‘अइसे काहे बोलइत हा जी? अपसोवारथी वाला बात।.... लोग कहइत हलथी कि ढेर कम्बल आयल हई बांटे खातिर....टरके-टरक आयल हई।’’ बेदामी कहलक।
 ‘‘हां....हो ठीके कहइत हऽ। तनी देर खातिर हमर मन में लोभ के कीड़ा समा गेल हल। सब हड़प लेल चाहित हली। बाकिर न....न....न सब गरीब के मिले के चाहीं।’’
 हवा आउ बरखा दुनो खूब तेजद हो गेल। दांत किटकिटावल बढ़ गेल आउ अब कांपे लगल हल।
 ‘‘रो-कलप के सब लइकन सुत गेलन।’’ बेदामी बोललई।
 ‘‘हां, सब गुमी साथ लेलथी....। सब चुप हथी....बाकि ए बेदामी, देखऽ तऽ टो-टोके, जिअइत हथी ने?’’
 ‘‘अइसन भाखा काहे बोलइत हा न हवऽ जी? मोह-ममता नखव?’’ कहते-कहते ऊ लइकन के टो-टा के देखे लगल।
 ‘‘भुखल लइकन ठंड से कांपइत हथी। रोते-रोते तऽ चुप होलथी हे थक-हार के ....आब बोली कहां से निकलो?’’ बेदामी कहलक।
 ‘‘अब का कयल जा सकऽ हे बेदामी? घर भी तऽ इहां से दू कोस दूर हे। ससुरी बिजली-बत्ती भी राजा के न आवे के शोक मनावइत हे। बरखा कहइत हे कि हम आझे बरस जायब। लगइत हे कि आझ आसमान के करेजा चिरा गेल हे।’’ चल्हवा कहइत हल आउ बेदामी गुम-सुम सुनइत हल।
 ‘‘आह न आवल चाहित हलई। लोग के कहे में आ गेली। सोंचइत हली कि कम्बल मिलला पर जाड़ा ठीक से कटत। भर हिन्छा पूड़ी-बुनिया खायब....बाकिर....।’’ पछतावे लगल बेदामी।
 ‘‘लइकन के फिकिर हलई बेदामी। हमनी के जाड़ा तो अइसहीं कट जा हे। बताऽ तू हीं हमनी के भर पेट खाए-पहिने के मिलऽ कहां हे? मुसपैलटी के दरमाहा तऽ नाली के बाढ़ हे बेदामी आयल आउ गेल। ओह अभी दारू रहतई हल नऽ....तऽ....’’चल्हवा कहलक।
 ‘‘फिनो दारू के नाम लेइत हऽ? सरकारी डाकघर मना कलथु हे कि न। बेमारी से तऽ सुख के कांट हो गेल हे।’’ बेदामी चेतयलक।
 ‘‘आउ तू? तोरा तऽ सालो भर खोंखी रहऽ हउ। सुख के तऽ मिरचाई हो गेल हें। दारू न पी के तू गामा पहलवान हो गेल हे का?’’ चल्हवा कहलक। कहते-कहते ओकर धेआन लइकन पर गेल। बेदामी तऽ टो-टा के देखते हलई।
 ‘‘सुनऽ बेदामी। लइकन के सटा-सटा के सुताव। हम चादर गार के ओढ़ा देइत ही। दुनो तरफ से हमनी तोप के रख एहनी के। आउर सुन न....हम अपन कुरता, लुंगी, चदर उतार के ओहनिए पर डाल देइत ही। ई अन्हरिया में के देखइत हे?’’ चल्हवा कहलक आउ अपन कुरता, लुंगी उतारे लगल आउ पानी गारे लगल।
 ‘‘सुनऽ बिलटुआ के बाबू। हमहूं अपन लूगा खोल के ओढ़ा देइत ही।’’ बेदामी कहलक।
 ‘‘अरे न रे बेदामी.... तू न। तू तऽ लाज हे हमर। हमर इज्जत। हमर जिनगी केताना दिन के हे? डाकघर का झूठ बोलइत हलई? सुनऽ हो बेदामी। लइकन के कइसहूं जान बचा लऽ। तोर परान तऽ इलकने में बसऽ हे। तू हीं कहलऽ हल न कि हम अपन लड़िकन के बम पुलिस के दरोगा बनाएब, डरावर बनाएब, चपरासी बनाएब आउ हाकिम के महतारी कहाएब। तू कहलऽ हल कि न....? देख, तू सही-सलामत रह। हमर फिकिर छोड़ दऽ....हम तऽ....’’चल्हवा में आगे बोले न देलक बेदामी मुंह पर हथेली रख देलक।
 ‘‘बिलटुआ के बाबू।....ए बिलटुआ के बाबू। मन ठीक हवऽ न?’’ हड़बड़ा के पूछलक बेदामी।
 ‘‘हां....हां....बेदामी ठीक ही। आउ सुनऽ तू का समझइत हऽ? ई मयदान में हमनी अकेले ही का? न....न....ढेर लोग हथी’’, कहते-कहते जोर से हांक लगयलक चल्हवा.
....‘‘के हऽ हो?’’
‘‘हां, हम ही’’
‘‘हमहूं ही’’
‘‘हमनी सब ही।’’ चारो तरफ के अवाज सुन के बेदामी चेहा गेलई, चल्हवा के भी अजगुत लगल। ठठा के हंसे लगल चल्हवा।
 ‘‘सुन लेलन....अपन समाज के लोग इहां हथी....बोलते-बोलते सोचे लगल चल्हवा, फिनो कहलक देखऽ बेदामी....भोट के बेरा रहतई हल न, त रजवा जरूर अतउ हल। आधी-बतास में उड़ के भी, बाढ़ में दहा के भी....कइसहूं पहुंचतउ हल। आके फसलतउ हल, घिघिअतउ हल बाकिर अभी?’’ चल्हवा बड़बड़ाइत हल आउ ओकर सांस धौकनी नियन चले लगल हल।
 चल्हवा के बेजाय मन देख के बेदामी के बेचइनी हो गेल। ऊ खरकले उठल। अपन लूगा के दम लगा के गारलक आउ चल्हवा पर फयला देलक। चल्हवा पर निशा नियन नींद सवार हो गेल हल।
 ‘‘एतने में एगो लइका रोवे लगल। बेदामी तनी चदर ओकरा पर डाल देलक। चल्हवा के सांस अब घरघराए लगल। फिनो बड़बड़ाए लगल चल्हवा....बेदामी। ए बेदामी....कुछ सुनइत हवऽ तोरा?....सुनऽ....धेयान लगा के सुनऽ। दहाज आवे के अवाज आवइत हई....आवइत हई राजा।’’ सुन के चेहा गेलई बेदामी।
 ‘‘राजा आवइत हथी?’’ कहते-कहते बेदामी अन्हरिया में डूबल असमान के देखे लगल आउ ठंडा सांस खिचलक।
 ‘‘तू सचो कहइत हऽ बिलटुआ के बाबू....एकदम सच....हां....देखऽ न....बदरी के रथ पर सवार होके आवइत हथी राजा....हां....हां, आवइत हथी जी....।’’ बेदामी भी बड़बड़ाए लगल।
 बदरी गजरल, बिजुरी चमकल, बदरी गरजते रहल....बिजुरी चमकते रहल, सराप नियन बरखा धरती पर गिरते रहल....रोवे-काने के अवाज मयदान से अयते रहल।
 कुछ पल बाद परलय थम गेल, रूक गेल बरखा। सुरूज के निकले के पहिलहिं मयदान में सैर करे वालन के भीड़ आवे लगल। भीड़ चल्हवा, बेदामी आउ उनकर लइकन के अजगुत से देखित हलन। चल्हवा, बेदामी आउ उनकर लइकन में दूर-दूर तक सांस के दरस-परस न हल। चल्हवा आउ बेदामी के आंख असमान पर टिकल हल।
 भीड़ के लोग ऊ परिवार के जगावइत हलन....बाकिर ओहनी के नीन जगे खातिर न आयल हल। 
 .....
अपने सब थभी देख लेउ .....ढेर लोग जगावइत हथ ऊ परिवार के आउ लजायल सुरूज बदरी के ओट से झांकइत हे....।
                        सेंट्रल को-ऑपरेटिव बैंक,                 
                                                     मंगल पांडेय पथ,
जिला भोजपुर - 802301
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कहानी                                
        
कह देहीं हल
                     जयनंदन सिंह

  ढेर दिन से सपरते-सपरते, हिम्मत जुटैते फिन अपन गाम अयलूं हें। शहरी चकाचौंध में अलसाल मन, गाम में ठिसुआल नियन लगे हे। महेश थान के पिपर गाछ के छितराल डैघुरी के विस्तार घट गेल लगे हे। टिबुलवा तर के गोलका बर के विस्तार ठहर गेल हे, बिना पानी के। जन्न-तन्ने सपलाय वला पम्प देखलाय पड़े हे। बिजली के खंभा पर झुलल तार चिरईं-चुरमुनी के झुलुआ बनल हे। बड़का बहरा, जेकरा में बैशाख तक पानी झिलहेर खेलो हल, सोनी मियां, अलीम मियां ओगैरह के लग्गी दिनभर डुबल रहो हल, पूसे में सुक्खल हल। अस्पताल आउ किसान भवन के बड़गो-बड़गो बिलडिंग शोभ रहल हल, ऊ अहरा में। छोटका अहरवा भरा के दलान बन गेल हल, धार-भार वलन के। चमरपोखरिया तऽ कहिये ने भरा गेल हल आउ पटवारी जी के खेत बन गेल हल। मिट्टी कुइयां जेकरा पर सभे के दलधोय होवो हल, हमरो  होल हल, के अंड़सा ऊंच हो गेल हल। हुलक के देखलूं तऽ ओकर हरीयर पानी में उखड़ा, डमरा, बलुरी, खखड़ा आउ हठुआ मनी अलखर-जलखर उपलाल हल। हमरा इयाद पड़ गेल गर्मी में इहे कुइयां के पानी टोलाभर के घर में जा हल। एकर उत्तर-पूरब से भरला पर पानी में दाल जल्दीए सीझ जा हलइ। ऊ मिट्टी कुइयां के ई दुरगति देख के मन हहर गेल। मिट्टी कुइयां हमर पहिचान हल। कोय पूछऽ हल कि ‘‘नीमी में कउन टोला घर हो’’ तउ जवाब दे हलूं, ‘‘मिट्टी कुइयां पर।’’ हमर आंख डबडबा गेल हल। लगल हमर पहिचान गदला रहल हें। अस्तित्व लोप हो रहल हें।
 अस्तित्व....हां अस्तित्व के तलाश सभे के रहे हे। ईहे अस्तित्व के बचावे ला जीव संघर्ष करे हे, मरे हे, मारे हे। इतिहास गोवाह हे कि जेतना भी जुद्ध होल हें, ओकर पीछे अस्तित्व के बचावेके ही भाव हल। जरऔर जोरूतऽ एगो बहाना बनल हल। हमर ऊहे अस्तित्व आझ केतना खामोशी से लोप हो रहल हें, आउ हम बेसुध ही। महानगर के भीड़-भाड़ आउ भाग-दौड़ में हमरा ई बात इयादे न रहल। ऊहां एसी ऑफिस में बैठके धरोहर बचावे के केतना पलान बनैते रहलूं हल, मुदा जहां हमर धरोहर हल, उहां हम केतना साल बाद अयलूं हल....? कैसे बचत हमर धरोहर....?
 जइसहीं बस से महेश थान उतरलूं हल एगो चिन्हल-जानल हावा तन-मन के सिहरा देलक हल। आदतन हमर दाहिना हाथ छाती से लग गेल आउ मुड़ी झुक गेल। पीपर गाछ के एगो चिन्हल डाढ़ पछिया हावा में झुक के असिरवाद देलक। मन गुदगुदा गेल हल। ई महेश थान हे....बाबा महेश के पिंडी। बाबा महेश हमर कुल देउता। हरेक साल महेश बाबा के घी चढ़ो हलइ। हमर मेंहूस मा कहो हलथिन – ‘‘बेटा महेश बड़ी परतापी हथिन।’’ हम तखने दस-बारह साल के हलिअइ, अचरज से पूछऽ हलिअइ....‘‘कइसे, ममा....?
 ‘‘देखीं बेटा, बहुत पहिले के खिस्सा हइ। एक तुरी इ महेश थान में राजगीर से नहा के बरहम-पिचास के दल आके ठहर गेलइ रात में बरहम-पिचास आउ महेश बाबा में बात-गलबात होवो लगलइ। पिचास के हिंछा होल कि ईहे जगह रहल जाय। ई पर महेश बाबा कहलखिन – ‘‘देख भयबा, एज्जा हमर बाल-बुतरू खेले-कुदे हे, तोहनी हें गरमाहा। तोरा बरदास नञ् होतउ। ईहे से कहऽ हिअउ कि चल जो हिंआ से।’’
 पिचास कहलखिन कि – ‘‘जगह बताबो....।’’
 बाबा कहलखिन – ‘‘चल जो पूरब दन्ने, आउ पुरवारी टोलवन वला के तंग करहीं तउ जगह दे देतउ।’’
 फिन तऽ की कहिउ बउआ....? पुरवारी टोलवा में कोहराम मच गेलइ। हड़िया-चरुइया में खनमा पैखाना हो जाय। रात में सुतल अहिआतन के मांग धोवा गेलइ, चूड़ीयन फूट गेलइ आउ रांड़ मसोमातन के ठाढ़े-ठोप सेनूर पड़ जाय....। बुतरूअन खेलते-कूदते मरो लगलइ। संउसे टोला में हड़कंप मच गेलइ। अजिया के महेश बाबा के चटिया से एकर उपाय पूछल गेलइ। चटिया बाबा कहलथिन कि बरहम-पिचास के जगहदेहीं। देखो हीं नञ् बरहमा थान। हुंऐ जगहदेल गेलइ बरहम-पिचास के।’’
 हमर बालमन में तखनउ ई सवाल उठल हल कि महेश बाबा ऐसन काहे कैलखिन.....?
 मामा ई रहस्स के खोललथिन हल – ‘‘जब महेश बाबा के घी चढ़ो हलइ, तउ पुरबारी टोलवन वला कहो हलखिन कि मुसहरके मनरी बजो हइ।’’ हमर आंख अचरज से मुना जा हलइ आउ हम डर से मामा के देह से सट के सुत जा हलूं। हमरा अभियो इयाद हे। हम जने-जने घूम जा हलूं ओकर इतिहास हमर आंख के आगू घूमऽ लगऽ हल, सिनेमा नियन। महरानी थान, लुल्ही थान, मांझी थान, घरेता, कुम्मर थान, हहेबा पर, डाक थान ओगैरह। लुल्ही माय के तो रवेरा के दू-तीन छंउड़ चोरा के ले भागलइ हल। ढेर दिन तक लुल्ही माय थाना में बंद रहलखिन, फिन हमनिये हुनखा जमानत करा के लैलिअइ हल, आउ फिन से बैठा देलिअइ हल। महरानी थान जाके दक्खिनमुखी माय के परनाम कैलिअइ। चउगिरदा केतना आम-अमरूद के गाछ हलइ, करगी-करगी कनेर के पेड़ हलइ। जेकरा में पियर-पियर फूल शोभऽ हल। सभ खतम। खाली पान, छो गाछ आम के, दू गाछ बेले के। एकदम उदास लग रहलइ हल महरानी थान।
 सांझ बखत घर अइलिअइ। मंझला का दलान में बैठकी लगैले हलखिन। सामदे का, सिया का, राजो का, नग्गू महतो, अधीन राम, किसुन महतो, ओगैरह। सभे के परनाम-पाती होलइ, हाल-चाल होलइ। मंझला का एक नम्मर पूजेड़ी हलखिन महरानी के। चाची तनी मनकड़ड़ हलखिन। बाकि अब ई बुढ़ारी उनखर मनकड़ड़ लरमा गेलइ हल। चाचा के भी बोली में ऊ गरमी नञ् बचलइ हल। राते खा-पी के चचे के बगल में पोआर पर ओघड़ा गेलिअइ। ई मगहिया तोसक के कोय जवाब नञ्....।
 राते चचा कहलखिन – ‘‘तउ कल्हे के की परोगराम हउ?’’
‘‘तनी खेत-खंधा घुमबइ, आउ की....?’’
‘‘से तो घुमबे करम्हीं....बाकी अस्सल कामा....।’’
‘‘हां कका। मइये मरे घरी कहलकइ हल कि जहिया नया घर में घरहेली करिहं, तउ देव-पित्तर के जरूरे न्योतिहंऽ आउ सीरा-पींडा के मट्टी जरूर ले अहिंअऽ।’’
‘‘तउ कड़वा लैलहीं हें....?’’
‘‘ठीके हउ....सुत्त जो....।’’
हम्हूं थक्कल-मांदल सुत्त गेलअइ। अचक्के हम्मर नीन टूटल खट....खट....खट। हम उठ के बैठ गेलूं। लगल कि कका उठलखिन होत पर-पेसाब करे ला। बगल में हाथ से टिटकोरलिअइ, तउ काका सुतले हलखिन बाकि हम्मर छूअन से उठ गेलखिन – ‘‘की होलउ....सुज्जो....।’’
 ‘‘कका....कोय हखिन....खड़ाम के अवाज।’’
‘‘कोय नञ् हखिन....। चुपचाप सुत्ते ले ने कहलिअउ।’’
‘‘नञ् काका....कोय हइ। उज्जर खह-खह धोती पेन्हले, चद्दर ओढ़ले मुरेठा बान्हले....कोय हखिन।’’
 ‘‘
कहलिअउ सुत्ते ले ने।’’´मंझला का हमर कान में फुसफुसा के कहलखिन – ‘‘बाबा महेश हखुन आउ के....।’’
 अचरज से हमर आंख गोलिया गेल, करेजा के धुकधुकी बढ़ गेल, ठोस हिलल बाकि अवाज नञ् निकसल – ‘‘बाबा महेश....।’’
 पूरब दन्ने भुड़ुकवा उग गेल हल। बगल के नीम गाछ पर चुहचुहिया बोले लगल हल। काका उठ के लोटा लेके पछियारी सड़क पकड़ लेलका हल आउ हम....हम महेश बा के बारे में सोचे लगलूं हल। हमर मन सचआउ सपनाके बीच झूल रहल हल।
 बिहान होल। किरिया-करम के फारिग होके नहा-सोना के काका साथे महेश थान गेलूं। हाथ-गोड़ धोके अगरबत्ती जलैलूं आउ बाबा के पिंडी पर न्यौता के काड धर देलूं। काका धेयान लगा के बैठ गेला, उनखर बपगल में हम्हूं बैठलूं। थोड़े देरी में एगो गेहूंमन सांप निकसल, आउ हमर पीठ दने से घूम के पिंडी पर फन काढ़ के खड़ा हो गेल। डर से हमर हालत खराब हो रहल हल, बाकि काका के इशारा पाके हम डीढ़ रहलूं। ऊ सांप अपन फन से काड के छूलक आउ फिन जने से आल हल, चल गेल। काका कहलखिन – ‘‘चल रे बेटा....तोर न्यौता मंजूर....।’’ हम्हूं हंसी-खुशी चल देलूं घर। रसता में सोंच रहलूं हल कि ‘‘ई सब खिस्सा अपन बाल-बच्चा के सुनाम कि नञ्....?’’ अंतिम निरनय होल कि – ‘‘नञ् रे मन....ई मने में रहे तउ अच्छा।’’ काहे कि एकैसमी सदी में ई बात केकरो पचतइ नञ्। अचक्के हमरा ठेस लगल, हम चिहुंक गेलूं।
 काका के मन ठीक नञ् लग रहल हल। एकदम भुलाल जैसन एगो अजीब सूनापन उनखर आंख में पैरो लगो हल, कखनऊं। मोहना....नञ् मोहना के तो ई तो घरो से बाहर कर देलखइन हल। कल्ह से अभी तक हमरा कते बेर मन कैलक कि – ‘‘मोहना के बारे में पूच्छूं। बाकि हम जानो हलूं कि मोहना के चरचा पर काका के तरवा के धूर कपार पर चढ़ जा हल। ईहे डर से....। मोहना मंझला का के एकलौता बेटा हल। बचपने से लुरगर-बुधगर, समाजिक, हितमिल्लू आउ अजाद ख्याल के। कका पूजेड़ी अदमी....भगत महरानी के। हम पटने में हलूं तउ सुनलूं हल कि मोहना अपन मने से एगो विधवा से बिआह कर लेलक हें। हमरो जी जर गेल हल। से हे कहियो मोहना से बात नञ् कर सकलूं। हमरा इहो पता हल कि मोहना सराय पर किराया के घर में रहो हइ। बाकि घर-परिवार के संस्कार आउ काका के डर के कारण मोहना से नञ् मिल सकलूं।
 काका के आंख के सूनापन में मोहना हल कि नञ्, कह पाना मोसकिल हे। कभी-कभार हमरा लगो हल कि काका से मोहना के बात छेड़ल जाय, मुदा....। हमर हिम्मत जवाब दे गेलइ। तहिया जब महरानी थान से घर अयलूं, चाची खाय पका के ठौर-चौका कर रहली हल। साड़ी में जन्ने-तन्ने कारिख के दाग....हाथ-गोड़ ठिठुर के उज्जर हो गेल हल। भनसा भीतर के केवाड़ी सड़ गेलइ हल। दक्खिनवारी ओसरवा पर के अनवारी ठीक हल, जेकरा में काका के कागज-पत्तर रखल हल, रसीद-पुरजा, हनुमान चालीसा, दुरगा-सप्तशती, बजरंग-वाण, विनय पत्रिका, सूर-सागर, गीता, कल्याण के ढेर मनी अंक आउ एक कोना में मोहना के बुतरू वाला फोटु। सीरवा भीतर तऽ अभियो अन्हारे हल। दइया के ताखा पर कैल सेनूर के दाग मलीन हो गेल हल। मिसरी के पघीलल ढेला खोंटा-पिपरी के अखाड़ा होल हल। दिन के इंजोर में संउसे घर के मन भर निहारलूं। शहर में घरहेली के उत्साह सरदा गेल हल, अपन पुस्तैनी घर देख के। मइयो के बात इयाद पड़ गेल – ‘‘बेटा, घर घर होवऽ हइ।’’ ई सही हे कि लोटा आउ बेटा बाहरे चमको हइ, बाकि घर....घर होवऽ हइ।
 ‘‘बेटा, बैठईं ने।’’ कह के चाची एगो पीढ़ा बढ़ा देलखिन।
 ‘‘की करिअउ बेटा....? बुढ़िया से जे हो सकतउ, से हे ने।’’ कहके चाची अंचरा के कोना से आंख पोंछ लेलकी। हमरा हिम्मत नञ् पड़ल कि चाची के आंख में देख सकूं। बाकि चाची के अंदर कुछ टूट रहल हल, हमरा लगल।
 ‘‘अरे, ई तऽ पागल हइ हो। दिन-रात अइसहीं कैले रहतउ। नञ् खइतौ नञ्  पितउ। बताहीं ने....अइसे कय दिन पार लगतइ? कहि के काका एगो मचिया लेके बैठ गेला।
 ‘‘नञ् खा हियै, तउ हावा पिओ हियै की? ई पछेवा हमरे ले तो बहो हइ।’’ चाची के बुदबुदाहट में एगो झल्लाहट नजराल हमरा।
 थारी के नसता परसा गेल हल।
 ‘‘आझ दुन्हू बापुत साथे खाम। ढेर दिन हो गेल हें।’’ कहके काका उठलखिन आउ अनवारी खोल के निमकी वला बोइआम निकसलखिन। उनखर आंख से एक बून नोनगर पानी बाइआम के नोनगर रस में गिर गेल हल। हमर मुंह से एक बकार नञ् निकस रहल हल। चाची आउ काका दुन्हूं अपन-अपन काम में लगल हलखिन, बाकि हमरा लग रहल कि दुन्हें अपना-अपना के बहला-फुसला रहलखिन हें।
 ‘‘देखीं, आझ फिन पनिया नञ् देलकै।’’ हम उठ के चापाकल पर अपने पानी ले अइलिअइ। चाची उठ के खड़ा होलखिन डांड़ा पर हाथ धर के सोझ होवे के जुगाड़....।
 ‘‘खा हीं नञ् हो। नञ् अच्छा बनलउ हें....?’’ काका के ई सवाल पर चौंक गेलूं। हमरा ठीके में अच्छानञ् लग रहलइ हल। जबरन कौरा घोंअ रहलिअइ हल। काहे कि हरेक कौर में चाची के दरद घोरालहल।
 ‘‘अरे ऊ भेंटइलइ हल....।’’ काका पानी पीते बोललखिन।
 ‘‘के....मोहना....?’’ चाची के देह में फुरती आ गेलइ।
‘‘नञ्....दिनमा।’’ सुन के चाची फिन बैठ गेली।
‘‘की कहलको....?’’
‘‘ऊ अइतइ....?’’
‘‘के....दिनमा....?’’
‘‘नञ्....मोहना....? ई देखे ले कि बुढ़वा-बुढ़िया मरलइ कि बचवे करो हइ....? चाची के चेहरा कठुआ गेलइ।
 ‘‘तोरा तऽ हरसाट्ठे मरहे के चरचा....’’
‘‘तोरा की लगो हो, हमनियो बचले हिअइ....?
‘‘देखलहीं हो पगली के। निरबंश अदमी नञ् बचो हइ....की?’’
‘‘हम निरबंश नञ् ही....।’’
‘‘तउ की हा? बेटा हो, पुतहू हो, पोता हो, बाकि अयलो हें एगो दिन ताकहो ले....? हम निरबंश नञ् ही....बड़का बंशगर हा।’’ कह के काका उठल आउ निमकी के बोइयाम फिन अनवारी में रख देलका।
 ‘‘ऊ तऽ हम कीरिया दे देलिअइ हल, से हे से....।’’
‘‘कीरिया दे हइ तउ की....मायो बाप छूट जा हइ?’’
‘‘आउ तों केतना गरिअइलहो हल, मारे ले खदेड़लो हल इहे डर से बेचारा....।’’ चाची आगु के थरिया उठा के कल पर दने चल गेली हल। कल पर पिछुल हो गेलइ हल, काय जम गेलइ हल।
 ‘‘सुनल्हीं ने हो.... माय-बाप के गारी परो हइ....कहैं? माय-बाप के सरापला से बाल-बच्चा के बरक्कत होवो हइ....। डर से....हमर डर ऊ मानतै हल, तउ ऐसन काम करतै हल....?
‘‘अब की करइ ले अइतइ....?’’
‘‘अयतो....अपन जरूरत के समान ले जाय ले, आव की....?’’
‘‘हां....ओकरा समान के तऽ जरूरत हइ....खाली माय-बाप के जरूरत नञ् हइ....ईहे ने....।’’ कहके चाची फिर से अंचरा के कोना से आंख पोंछ के नहाय ला कल पर दने जाय लगली। हम उनखर हाथ से बाल्टी लेके पानी भरो लगलूं। हमरा नञ् तो पहिलहीं, नञ् तो आझे ई थाह लग रहल हल कि बोलूं तउ की बोलूं? केकर दोस दूं? दोस लोहा के हल कि लोहार के....? बाल्टी भर चुकल हल, उपर झज्झ होके पानी गिरो लगल हल बाकि हमरा होशे नञ्।
 काका बोरसी के आग उकटे ले गोइठा खोज रहल हल। उनखर आंख में तलाश हल....गोइठा के ईया....। हम लपक के एगो टूटल खड़ाम खोज के बोरसी उकटे लगलूं। मिंझाल बानी के अंदर भुस्सा के खह-खह आग हल। काका के मुंह पर ओइसने बानी के तह पर तह बाकि उनखर मन के अंदर....? खह-खह आग....। हम ऊ आग के तपिश थाह रहलूं हल।
 ‘‘देखहीं ने उकटैला पर बोरसिया धुआंय लगलइ’’, कहके काका अपन आंख में ऊ डबडबाल लोर पोंछ के गमछा कंधा पर रख लेलका। हम देखलूं गोइठा के एगो जरी गो चिपड़ी, जे बिना जरल रह गेल हल, सुलग गेल हल आउ धुइयां के एगो पातर डिढ़ार ऊपर दने खींचा गेल हल। पता नञ् ई धुइयां चाचियो के लग रहलइ हल, शायद।
 नहा-सोना के चाची सीरा-भीतर में दइयाके आगु हुमाध जरा के बैठ गेली। फिन जल ढार के खाय ले बैठली। उनखर एकक कौर में भारीपन हल। कौर निगले में भी जइसे भार पड़ रहल हल। हर दू-तीन कौर पर एक घोंट पानी....लगे जइसे नीम के काढ़ा पी रहला हें।
 ‘‘देखो, जदि ऊ अइतइ, तऊ बोलहो खल नञ्।’’ चाची पानी पी के बोललखिन।
 ‘‘बोलवइ....हम्मे....? हमरा की काम हइ? तोरी भले बिन बोलले खायक नञ् पचतो।’’ हम काका के मुंह पर उभरल दरद में घिरना के भाव देख लेलूं हल। चाची हाथ धो चुकली हल।
 ‘‘हमरा तऽ ठीके में नञ् पचतइ। माय हिअइ ने....। एगो बात कहियो....?
 ‘‘कउची....’’ काका के चेहरा से घिरना अलोप गेल हल।
 ‘‘गोसैबहो नञ् ने....’’। चाची के पीढ़ा आउ काका के मचिया के दूरी घट गेल हल। बोरसी के एक दन्ने खाली पड़ल जगह में चाची अंट गेली हल।
 ‘‘बोलहो ने....।’’ हम कखनउ चाची के मुंह देखऽ हलूं, कखनउं काका के ।
 ‘‘ऊ अगर आके ईहे घारा में रहइ, तऊ की हरज? असगेर बनायत-खायत। हमनी पुरबारी ओसरा में, ऊ पछियारी ओसरा में। हमनी के जादे के जरूरत की हइ?’’
 काका झटके से मचिया पर उठ गेला। बोरसी उलटा गेल। चाची के आधा बफार मुंहे में रह गेल। चमरखानी जुत्ता पहिर के काका मुरेठा बान्हते दुआरी दने बढ़ गेला। हम एतने सुनलूं – ‘‘कह देहीं हल।’’
                                                                                                -शेखोपुर, सराय, शेखपुरा
    
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कविता-कियारी
झंडा-गीत
       नागेन्द्र शर्मा बंधु

तीन रंग के हमर तिरंगा
लहरावे आसमान में।
चार चांद ई बढ़ा रहल हे,
भारत मां के शान में।
पुरखन के तप त्याग से मिलल,
भारत के ई झंडा।
एकरा खातिर छोड़ऽ पड़तो,
तोहनी के काला धंधा।
नञ् तऽ आग लगा देम हम सब,
तोहनी के दोकान में। चार चांद....।
पूरब पश्चिम आउ उत्तर में
दुश्मन हे तइयार।
ओकरा खातिर ले अयलूं हल,
हम नयका हथियार।
जोश भरल हे सीमा पर,
हमनी के जबान में। चार चांद....।
जात-पात आउ धरम नाम पर,
अब नञ् चलइतो डंडा।
बड़ दिन नाच नचइला तोहनी
उग्रवाद के खंडा।
श्रम के आहुति देवे पड़तो,
खेत आउ खलिहान में। चार चांद....।
कतरा-कतरा खून से देखऽ,
केसरिया रंग रांगल हे।
बापू जी के सत्य अहिंसा,
श्वेत रंग में सानल हे।
हरिअर धरती लहर रहल हे,
भारत के जश गान में। चार चांद....।
जब तक सूरज चंदा रहतइ,
गंग जमुन के धारा।
तब तक घुमइते चक्र हमर ई,
आजादी के प्यारा,
एकरे किस्सा लिखल जइतइ,
रामायण-कुरान में। चार चांद....।
                                                                         - बंधु-बसेरा, वारिसलीगंज
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कविता-कियारी
                            कहां गेल ऊ दिन बचपन के
                                                                                             रामचंद्र

तोतर बोली टिड़ी पइयां उठना गिरवा अउ रोदन के
मइया के ममतामय चुम्मा झारयत अंचरा धूरी तनके।
नूनू बउआ राजाबेटा सूरज चंदा नामकरन के
अंखिया के कोरन में काजर चमकत कार डिटौना बनके।
कहां गेल बचपन के साथी सोखी सेखी चंचन मल के,
दादी के ऊ रतिका किस्सा राजा ढोला रानी मरूअन के।
गुल्ली डंडा खेल कबड्डी डोलपत्ता झूला बगियन के
कहां दरस बगिया के मंहकई आम पीयर करियर जामुन के।
कहां गेल तरचढ़वा काका रसगर कोवा ऊ तरकुन के
कहां अब भदवी डांढ़ केतारी खाके खुल्ला खांड़ टपन के।
हरियर चूड़ा टटका नेनू कहां गेल सोंधय खखुरन के
सपना भे गेल खेत में होरहा अब अधपकुआ बूंट गहूम के।
धान सुरूज के गिनयत गुथयत बीतल वरिस पार पचपन के
बचपन के ऊ हर पल हमरा रूला रहल हे सपना बन के।
              ग्राम रेबड़ा, पो. बउरी,
थाना काशीचक(नवादा)
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कविता-कियारी
                                                  बिहारी भईया
     
 शफीक जानी नादां

तोहीं देशवा के हऽ शान हो बिहारी भईया।
गौतम बुद्ध के हऽ संतान हो बिहारी भईया॥
तोहर नाम के गांव नगर अउ शहर इतिहास,
चमकल हइ तोर घाम लेहू से बंबई अउ मद्रास,
ठामे ठाम तोर निशान हो बिहारी भईया॥
दिल्ली बंबई कलकत्ता गेला पंजाब तू गेला।
बाले बच्चे मिलजुल के तूं खट के रोटी खैला,
मांगला भीख नञ्, नञ् लेला दान हो बिहारी भईया।
जेजऽ जइसन काम भेटैलो ओजे तू डट गेला,
जइसे जुद्ध में डट गेलथिन हल हनुमान के सेना,
धरती के हऽ स्वाभिमान हो बिहारी भईया॥
सीना जोरी छीना छोरी नञ् कयला बलजोरी,
खटला खैला घाम बहैला नञ् कयला तू चोरी,
नञ् तू चोर नञ् बैमान हो बिहारी भईया॥
गेला तू परदेश तो कइला हाड़तोड़ के काम,
सितलहरी में भी तोर देहिया से छूटऽ हल घाम,
कते हका तू महान हो बिहारी भईया॥
नादांजेजऽ गेला तू बिहार के शान बढ़ैला,
तोरे पर हउ अभिमान हो बिहारी भईया॥
                                                                                                    -हिसुआ, नवादा
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कविता-कियारी
हो गजब समइया आल अभी
                                                                               परमानंद

    हो गजब हाल हम की कहियो, सुनबा तब कहवा पागल हे।
जे गुंडा के सरदार ऊहे, गुंडा पकड़इ में लागल हे।
जे हे कानून बनबइ बाला, उहे सब कानून तोड़ रहल,
भाषण करतो समरसता के, कनफुसकी करि-करि फोड़ रहल,
अफसर अपराधी आउ मंत्री, सब एक रंग में रांगल हे।
जे गुंडा के सरदार ऊहे, गुंडा पकड़इ में....

जे जेतना बोले झूठ अभी, ओतने आगू बढ़ रहलो ऊ
जे करे घोटाला जते बड़ा, ओतने उप्पर चढ़ रहलो ऊ
तों साध बनो हा बनल करो, चोरन के किस्मत जागल हे।
जे गुंडा के सरदार ऊहे, गुंडा पकड़इ में....

सह असह दरद जे जनमइलक, ऊ माय लथारल जा रहलो
जोरू के आगे नतमस्तक, हर बाप पछाड़ल जा रहलो,
सब तोड़-ताड़ रिस्ता-नाता, पैसा के पाछू भागल हे।
जे गुडा के सरदार ऊहे, गुंडा पकड़इ में....

हो गजब समइया आल अभी, अखने नञ् केकरइ कोय यहां
सब अप्पन दाव के यारी हे, नैतिकता गेल हे सोय यहां
चौपट्टी भ्रष्टाचारी के, डंका कस कस के बाजल हे।
जे गुंडा के सरदार उहे, गुंडा पकड़इ में....

हम भूलल सब कर्तव्य हकूं, खोजइ में अधिकार लगल
एक दोसर के चोर कहइ के, हे भारी अब सहचार चलल
अपना के नञ् कोय देख रहल, खुद कतना कारिख लागल हे।
जे गुंडा के सरदार उहे, गुंडा पकड़इ में....।
                        ग्राम पाली,
                                            पो. काशीचक(नवादा)
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कविता-कियारी
                                                   बिलायती बोली
                                                                        प्रवीण कुमार पुटूस

घऱ के अंगना में
टानल टंगना पर
कांव....कांव बोलऽ हे कागा
सुन के बेबी
बोलल माय से
‘‘मम्मी लगता है
आ रही भाभी
उनका भी बना दूं खाना
कागा बोल रहा है।’’
कागा अकचकाल सोंचलक
बुड़बक मगहिया बोलत हल
‘‘माय, लगऽ हउ आवइत हथुन
भउजी आज
लगा दी उनखरो सीधा?’’
तऽ की मइया नञ् बुझतन हल,
कि हम नञ् समझतूं हल।
जब हम खाली
करऽ ही कांव....कांव
तऽ बूझ जाहे दुनिया
कि कोय हथ आवेवला
तऽ भला मगही में
न बूझत हल माय?
हम जब समझ जा ही
मराठी, तेलगु, कन्नड़
उड़िया, बंगला, मलियाली
भोजपुरी आउ मगही
मैथिली, अंगिका, बज्जिका
आउ हम्मर भासा कांव-कांव
बूझऽ हे सब तऽ....
मगहियन तऽ जोर-सन
अइंठल के अइंठले हे
हमरा देखऽ
कांव-कांव छोड़ि के
आन बोली नञ् बोलऽ ही,
ई बात सब समझऽ हे
बकि मगहियन
बिलायती बोली में फंसिये जाहे।
-भट्टा, काशीचक, नवादा
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कविता-कियारी
धरम
राम पारिख

हर रोज
जिनगी के करम
अदमी अपनावऽ हे
असल में ओही धरम हे.
करम
व्यवहार, खान-पान
वेष-भूषा
रहन-सहन, बोल-चाल
पहनावा
धरम के रूप हे.
आझ
धरम के नाप पर
डंका पीटल जाइत हे.
अदमी
अदमी में भेद बढ़ा के
हिंसा के आग में
ढकेल देवल जाइत हे.
अहिंसा
तेज औजार हे कलयुग में
जेकरा से
निर्दोष, निर्बल
बेगुनाह गऊ काटल जाइत हे.
सत् के
बोटी-बोटी उड़ गेल.
धरम तऽ
जीअइ के व्यवहार हे,
छोट-बड़ में प्रेम
आदर के भाव हे.
रूप
कला हे कलाकार के
रचइता, चित्रकार के
अदमी कला सिरजनहार के
अदमी
अप्पन रूप
खुद संवारऽ हे
ढाढ़ी-मोंछ
कलमी कटा के.
सिर पर जटाजूट
माथा पर त्रिपूंड
चंदन के टीका
गर्दन में कंठी लगा के.
बाकि
ई तऽ अलग-अलग वेष हे
रूप हे
धरम तऽ हे नऽ.
धरम
मन के गुण
हिरदा के ऐनक में
साफ-साफ बुझा हे
दया, क्षमा, श्रद्धा, विश्वास
राग, विराग, प्रेम भरल
मनुजता के व्यवहार.
इच्छा, वासना के त्याग
महात्मा के पुनीत गुण हे.
भेद, धृणा
द्वेष, जलन
बदला के भाव
हिंसा के आग में
हिरदा जरावऽ हे
ई से तऽ
जर जाइत मनुष्यता
एकरा में तनिको न शक हे.
धरम
गुण हे जिनिस के
जेकर प्रभाव से दुःख
दूर हो जा हे
आउ जकड़ल रोग तऽ
बाप-बाप कह के दूर भाग जा हे.
जानऽ हऽ
नीम के तिताई
आउ मधु के मिठास
गुण हे, धर्म
वस्तु में.
फुफकारइत
नाग के धरम हे डंसेला
दुश्मन के
धरम के असल रूप समझऽ
भीमा भयावनी रजनी
चंडी रूप
क्रोध के ज्वाला में
भसम हो गेल
महिसासुर,
मनुज तन पा के
मनुष्यता के बचावऽ
सर्वनाश के गर्त में
गिरे से समाज के बचावऽ.
रग-रग में सउके
खून के
रंग तऽ एक्के हे.
हिंदू का
मुस्लिम का
सिक्ख आउ इसाई का?
मनुष्य के एकता ला
मनुष्यता ही धरम हे.
                                                             -राम पारिख, पाटलि पत्रिका, नवंबर 2011 से
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कविता-कियारी
                                                     अजी ! सुन्नऽ हऽ !
                                                                                
                                                                                          डॉ. भागवत प्रसाद

पढ़ऽ के अखबार के, नया समाचार के,
नारी के उद्धार के.
लग गेलो मोहर अउ नइकी सरकार के.
सोलह आना सच्च हको, बात हम्मर गुन्नऽ हऽ?
अजी ! सुन्नऽ हऽ !
रोजी रोजगार में, सब कारोबार में,
नौकरी-बेपार में.
सौ में पचास अइलो हम्मर अधिकार में,
सुन के ई बात अप्पन सिर काहे धुन्नऽ हऽ?
अजी ! सुन्नऽ हऽ !
पहिले अधिकार तू दे हला खाली सेज पर,
अब हमें ले लेबो कुरसी आउ मेज पर.
रोक लगा देबो अउ तिलक दहेज पर,
सीट हम्मर रिजब हे, तउ कइसे नञ् तू चुन्नऽ हऽ?
अजी ! सुन्नऽ हऽ !
बड़ी दिन सतइला हल, घरे में धुमइला हल,
सेवा करबइला हल.
चुल्हा आउ चौका में उमर बितबइला हल,
अउ जगल भाग हम्मर, तउ काहे जलऽ भुनऽ हऽ?
अजी ! सुन्नऽ हऽ !
तू रहिहा अउ घर में, बाल-बच्चा तर में,
हम जइबो दफतर में.
खाना तइयार रखिहा, अइबो दिन भर में,
ठीके तऽ हम कहऽ हियो, आंख काहे मुन्नऽ हऽ?
अजी ! सुन्नऽ हऽ !
फीच दिहा साड़ी के, मैंज दिहा थारी के,
बरतन आउ हाड़ी के.
साफ-सुथ्थर कह दिहा, घर आउ घेरवारी के
टैम हो गेल औफिस के, तू काहे हमरा रून्हऽ हऽ?
अजी ! सुन्नऽ हऽ !
                                                                                -प्राध्यापक, वजीरगंज कॅलेज, वजीरगंज(गया)
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मगह के आयोजन
        
                 राम प्रसाद पुरस्कार समारोह आउ किताब के लोकार्पण
          
            11 जुलाई 2014 के मगध विश्वविद्यालय, बोधगया के दूरस्थ शिक्षा विभाग सभागार में डॉ. राम प्रसाद सिंह साहित पुरस्कार सीरीज समारोह के आयोजन होल जेकरा में  मगही आउ हिन्दी के तीन साहितकार के सम्मानित कइल गेल। मगही अकादमी, गया के तत्वावधान में आयोजन भेल काजकरम में भाषा-भाषी संवाद के संपादक नृरेंद्र नाथ गुप्त, लोरकाइन के रचइता कुमार इंद्रदेव और मगध विश्वविद्यालय के प्रो. सुनील कुमार के सम्मान देल गेल। सम्मान में पच-पच हजार के नगद रूपैया, साल आउ प्रसस्ति पतर मिलल। अध्यक्षता मगही अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राम प्रसाद सिंह आउ मंच संचालन डॉ. उपेंद्र नाथ वर्मा कइलथिन। काजकरम के उद्घाटन मुख्य अतिथि विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति डॉ. कृतेश्वर प्रसाद, मानविकी विभागाध्यक्ष डॉ. वंशीधर लाल, साहितकार  डॉ. ब्रज मोहन नलिन ,गोवर्द्धन प्रसाद सदय आउ मगही अकादमी बिहार के अध्यक्ष उदय शंकर शर्मा जी जौरे कइलथिन।
      प्रतिकुलपति मगही के समृद्धि देख के साहितकारन के हौसला बढ़ावे लेल मगही अकादमी बिहार के भी ऐसन पुरस्कार देवे के शुरूआत करे के अपील कइलथिन ।  सम्मान के अप्पन माता-पिता के नाम पर चलावे आउ हर साल सम्मानित होवे वला साहितकार के 10-10 हजार रूपैया देवे के धोषणा करथिन। एकर अलावे हर साल मगही के दस बुतरू के गोद लेवे के धोषणा करलथिन। ओकरा लेल पच-पच सौ रूपैया हर साल देवे के बात कहलथिन। अतिथि आउ पहुंचल साहितकार मगही के हाल के बखान कइलथिन। मगही के विकास लेल आगू आवे आउ तन-मन से लगे के आह्वान व इलथिन। मगही के रोजगार परक बनावे के लेल संघर्ष करे के अपील करल गेल।  डॉ. राम प्रसाद सिंह, सम्मान समिति के अध्यक्ष लालमणि कुमारी, उपेंद्र नाथ वर्मा, डॉ. रामविलास रजकण 1985 से चले वला सम्मान आउ डॉ. राम प्रसाद के साहित साधना के चरचा कइलथिन।  साहितकार के संबोधन के बाद कविता पाठ के दौर चलल। काजकरम में मगही भाषा प्रक्षेत्र के लगभग सब्भे जिला के साहितकार पहुंचल हला। सदन खचा-खच साहितकार आउ प्रोफेसर से भरल हल। नवादा जिला से रत्नाकर जी के अलावे नरेंद्र प्रसाद सिंह, हम(उदय भारती), डॉ. संजय कुमार, कृष्ण कुमार भट्टा, प्रो. विजय कुमार उपस्थित हला।
कय गो किताब के होल लोकार्पण
  काजकरम में मगही आउ हिन्दी के कय गो किताब के लोकार्पण भेल। वरिष्ठ साहितकार व पत्रकार रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर के लिखल  लोकगाथाओं का सांस्कृतिक मूल्यांकन, डॉ. राम प्रसाद सिंह के मगही लोक नाट्य , शरद राजकुमारी आउ लोकक्ति परिवार, कुमार इंद्रदेव के भारतीय मूल वंश का इतिहास, संतो-देवों की कथा-व्यथा, काव्य सरिता भागवत, रामाशीष सिंह द्विज के अष्टाबक्र, बैजु सिंह के अमृतांजलि के लोकार्पण भेल।
   किताब लोकार्पण के बाद अप्पन संबोधन में रत्नाकर जी कहलथिन कि लोकगाथा के समृद्ध साहित नञ् मिल हे। मगह के लोकगाथा के चरचा कोय भी किताब में नञ् हे। हम ई किताब के मगह आउ दोसर लोकगाथा के जीवंत रखे के ख्याल से एकर रचना कइलूं हे।  लोकसंस्कृति के चिरकाल से महात्तम हे। गांव के संस्कृति आउ लोकजीवन पोथी में नञ् बसऽ हलइ बलूक लोक कंठ में बसऽ हे। लोक गाथा एक तरह के बढ़गर गीत होवऽ हइ जेकरा कय रोज तक मुक्त कंठ से गावल जा हल। ऊ किताब में देल गेल गाथा के रेखांकित कइलका।  मानविकी के विभागाध्यक्ष प्रो. वंशीधर किताब के विषय वस्तु के सराहना कइलका। किताब के लोकगाथा के इतिहास के संरक्षित रखे वाला बेहतर प्रयास बतइलका। लोकगाथा के सांस्कृतिक मूल्यांकन किताब में मगही, भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी व मैथिली लोकभाषा के 22 गो गाथा के मूल्यांकन संकलित हे।
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मगह के आयोजन

                        आलोचना सहइ के क्षमता रखथिन साहितकारः प्रो. तरूण
               काशीचक के जवाहर लाल नेहरू कौलेज में सगर रात दिया जरे काजकरम
               काजकरम में मगही साहित आलोचना और मानकीकरण पर होल मंथन
           लोचना सहइ के क्षमता रखथिन साहितकार। आलोचना से साहित प्रखर होवऽ हइ. एकरा से रचनाधर्मिता के स्तर ऊपर उठऽ हइ। ई बात हिन्दी मगही के प्रखर आलोचक आउ पटना कौलेज के हिन्दी के प्रोफेसर आउ काजकरम के मुख्य वक्ता डॉ. तरूण कुमार काशीचक के सगर रात दिया जरे काजकरम में कहलथिन. 14 नबंवर 2014 के अखिल भारतीय मगही मंडप, काशीचक के तत्वावधान में जवाहर लाल नेहरू कौलेज चंडीनोवां में काजकरम के आयोजन कइल गेल हल। श्री तरूण आलोचना के समकालीन स्थिति पर चर्चा कइलका आउ कहलका कि आझ के परिवेश में प्रखर आलोचना के बाद की प्रतिक्रिया आलोचना पर संकट है। आलोचना के ऐसन नञ् लेल जाय कि एकर वातावरणे खत्म हो जाए। ईहे सोना के सुहागा हइ। यदि आलोचना सहइ के क्षमता साहितकार में नञ् हइ तउ उनखर रचना चिरकालिक नञ् हे आउ नञ् तऽ ओइसन साहितकार से साहित के भला होतइ। साहित के अखड़ा में ऊ सच्चा पहलवान नञ् हे। आझ सच्चा आलोचना से मगही के साहितकार घबरा जा हथिन, उनखा आलोचना नञ् पचऽ हइ। ई साहित लेल बेस संकेत नञ् हइ। विना आलोचना के साहित मर जा हइ, विला जा हइ। हिन्दी आलोचना जेतना गंभीर हइ ओतने ईहां भी जरूरत हइ। ऊ फलक के मगही आलोचना के फलक पर रखइ के जरूरत हइ। तीक्ष्ण आउ आधुनिक औजार से आलोचना करइ के जरूरत हइ। सपाट बयानी से कोय आलोचना आउ रचना नञ् होवऽ हइ। ऊ साहितकार के एकरा आलोचना के नजर से देखे से मना कइलथिन। ऊ कहानीकार के रचनाधर्मिता के रेखांकित कइलका। साहितकार के आत्म मुग्धता त्याग त्याग के रचना के कसौटी पर खरा उतरे के कोरसिस करइ के टिप्स देलका। ऊ स्वस्थ्य स्तरीय साहित लिखे, ओकरा पर बार-बार काम करइ, ओकर आलोचना करइ आउ करवाबइ के अपील कइलथिन। प्रोफेसर तरूण मगही गद्य आ पद्य के समकालीन सेंगरन निकासे के ऩिहारा आउ ओकरा में सहयोग देवइ के बात कहलका. 100 समकालीन कविता के सेंगरन निकासे लेल ओकरा पर जल्दी काम करइ के निहोरा कइलका.
   जाहिर हे कि सारथी पत्रिका के मथुरा प्रसाद पर केंद्रित अंक 21 से शुरू होल मगही के प्रखर आलोचना के संदर्भ के रेखांकित करइत उनखर व्यक्तव्य हल। सारथी के ई अंक में जनकवि मथुरा प्रसाद नवीन पर निकसल पहिल के आलोचना आउ डॉ. भरत सिंह के संपादन में निकसल आखिर कहिया तक के प्रखर आउ खरा-खरी आलोचना से मगही के आधुनिक, समकालीन आउ क्रांतिकारी आलोचना के जे शुरूआत होल हऽ, ओकरा नञ् पचइ आउ मगही साहित जगत में हो रहल चर्चा पर उनखर संकेत हल। सच्चे में ई आलोचना के शुरूआत के बाद मगही साहित जगत में लगऽ हे भूचाल आ गेल हऽ। साहितकार एकरा कय गो रूप में ले रहलन हे। बात तऽ ईहां तक आ गेल कि ई अंके टारगेटेड हे।
 काजकरम के मुख्य अतिथि मगध विश्वविद्यालय के मगही विभागाध्यक्ष डॉ. भरत सिंह के व्यक्तव्य पारंपरिक तौर से ही शुरू होल। मगही साहित के इतिहास के दोहराबइत ऊ ईशान कवि, सरहपाद से शुरू करइत आझ तक के इतिहास के संक्षेप ब्योरा प्रस्तुत कइलका। जे में कुछ बात रेखांखित करइ के लायक हल। सारथी अंक के मथुरा प्रसाद अंक के आलोचना पर उनखर अंदर के भावना ईहां भी झलकल। ऊ शास्त्र आउ शस्त्र दुन्नूं के आधार बना के आलोचना करइ पर बल देलका। ऊ कहलका कि मगही साहित अभी ठीक से खड़ा नञ् होल हऽ। नञ् तऽ शास्त्र आउ शस्त्र के आलोचना विसकित होल हे। अभी चिर-फाड़ नञ् स्वस्थ्य आलोचना के जरूरत हइ। खाली शस्त्र से आलोचना करइ से मगही के विकास नञ् होतइ बलूक शास्त्र से भी आलोचना करइ के ओतने जरूरत हइ। पारंपरिक टूल्स से आलोचना के जरूरत पर उनखर बल हल।
प्रोफेसर चंद्रभूषण के भी मंच से दु गो बात कहइ के मोका मिलल । ऊ यथार्थ के रचनाकार पर संकट पैदा होवइ के स्थिति पर बात कइलका। फटल लुंगी फटल के फटले हे के संदर्भ बना के ऊ ओकरा पर खींझइ जाहिर करइ के नञ् बलूक आझ के विकास आउ देश-दुनियां के बदलाव पर भी रचना करइ के बात कहलका। सारथी पत्रिका के संपादक श्री मिथिलेश जी कहलथिन कि अउ मगही हर विधा में समृद्ध हो रहल हे। एकरा हर हाल में भासा के मोकाम मिलइ के चाही। ऊ मगह के जनप्रतिनिधि, सांसद आउ मंत्री से एकरा में लगी के अप्पन माय के बोली के करजा चुकावे के अपील कइलका।
    मगही अकादमी के अध्यक्ष उदय शंकर शर्मा औहे पुरनका सरकारी बाधा से मगही के काज नञ् होवइ के रोना रोलका। उनखर व्यक्तव्य में सरकारी औपचारिकता के बंधन के ओजह से साथर्क काम नञ् होवइ के झलक हल। ऊ जहां चाह ऊहां राह, इच्छा शक्ति आउ जनसहजोग के बदौलत मगही के आगू लावे के पहल आउ कोय नया काजयोजना बात नञ् कहलका।
 मगही के मानकीकरण के शुरूआत करइ के प्रस्ताव हम (उदय भारती) रखलिअइ, जे सउ के गला से नीचे नञ् उतरलइ। मगही अकादमी के अध्यक्ष उदय शंकर शर्मा तो ई प्रस्ताव पर ईहां तक कह देलथिन कि ई प्रस्तावे बज्रपात हे। ऊहां पर हम सबाल उठैलिअइ कि काहे ई बज्रपात काहे हइ? कि सउ दिन मगही ओहे राह पर रहतइ? एकरा में एकरूपता कहिया अइतइ। यदि ई तूफाने हइ? बिल्ली के गला में घंटी बांधे जइसन काम हइ। हवा के रूख मोड़े जइसन काज हइ? तऽ एकर शुरूआत के करतइ? हम साहितकार मगही के आउ मगही रचनाकार के तुष्ट आउ संतुष्ट करइ में काहे लगल रहऽ हिअइ लेकिन हम्मर ई बात के सउ लोग नजरअंदाज करइत एकरा टाले के प्रयास कइलथिन। प्रोफेसर तरूण, डॉ. भरत, श्री मिथिलेश, उदय शंकर शर्मा सब्भे मगही के ओहे धारा में बहे देवे ले छोड़ देवे के बात कहथिन जे धारा में मगही बह रहले हे। हम्मर मुंह के बंद कर देवल गेल। लेकिन हम ई बात के पुरजोर तरीका से रखलूं कि मगही के एकरूपता आउ मानकीकरण के शुरूआत कर देवइ में कोय परेशानी नञ् हइ। कम से कम एकर शुरूआत तऽ करल जा सकऽ हइ। हां, हम्मर पक्ष में दीनबंधु, परमानंद आउ दू चार गो साहितकार खड़ा जरूर होला।
   मगही के पढ़ाई स्कूल-कॉलेज में शुरू होवइ के बाद भी सरकार के एकरा लेल मंशा साफ नञ् रहइ के बात पर चर्चा होल। टीईटी के परीक्षा में पास होल अभ्यर्थी नियुक्ति अभी तलूक नञ् होवइ, मगध विश्वविद्यालय के मगही विभाग सहित मगही संस्थान के सरकारी रिक्त पद पर बहाली नञ् होवइ के सबाल खड़ा होल आउ ओकरा लेल मांग आउ आंदोलन तेज करइ के संकलप लेल गेल।
 काजकरम के अध्यक्षता मगही अकादमी के अध्यक्ष उदय शंकर शर्मा आउ संचालन मिथिलेश जी कइलथिन। शुरूआत पं. नेहरू के तस्वीर पर फूल-माला चढ़ाके भेल ओकर बाद वरिष्ठ साहितकार रामचंद्र के अध्यक्षता आउ नागेंद्र शर्मा बंधु के संचालन में दीनबंधु के सरस्वती बंदना से कवि सम्मेलन शुरू होल जे सगर रात चलल। कृष्ण कुमार भट्टा के एकल नाट्य प्रस्तुति सबके मन मोहलक। गया के  कवि  बासुदेव के डफली आउ खंचड़ी बजा-बजा के लोकगीत गायन सराहल गेल। काजकरम में जयप्रकाश, अशोक समदर्शी, रंजीत, शफीक जानी नादां, दयानंद बेधड़क, नरेंद्र प्रसाद सिंह, शंभू विश्वकर्मा, जयराम देवसपुरी, वासुदेव प्रसाद, प्रेम कुमार, मुंद्रिका सिंह, जयनंदन, सच्चिदानंद सीतारे हिन्द, सूरज कुमार,  दशरथ, परमानंद, चंद्रभूषण, उमेश बहादुरपुरी, अभय कुमार, नवलेश, नरेश प्रसाद, मदन शर्मा  मिलाके तीन दर्जन कवि उपस्थित हलन. साहितकार, पत्रकार आउ क्षेत्र के शिक्षाविदों रात भर  काजकरम के आनंद लेलथिन। धन्यवादज्ञापन कौलेज के प्राचार्य कइलथिन। आयोजन में परमानंद आउ कृष्ण कुमार भट्टा लगल हलथिन। मौका पर सारथी पत्रिका के 22वां अंक आउ श्री मिथिलेश के शेरावाली खंड काव्य के लोकार्पण भेल। कवि सउ के अंगवस्त्र आउ प्रशस्ति पत्र देके सम्मानित कइल गेल।
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मगह के आयोजन
         
              रचनाकार के समर्थ द्रष्टा होवइ के चाहीः नरेन
           
         23 नवंबर 2014 के वारिसलीगंज रेल टिसन भीर तुमड़िया बाबा भवन में अखिल भारतीय मगही मंडप के तत्वावधान में आयोजित होल साहितिक गोष्ठी आउ कवि सम्मेलन कय गो माने में महत्वपूर्ण हल. ई गोष्ठी में मगही साहित के दशा-दिशा के मंथन तऽ होवे कइल पर स्तरीय रचना लिखइ के लेल जे रचनाकार के टिप्स देल गेल ऊ मगही के विकास के साथर्क पहल साबित होत. रचना के अप्पन विधा के कसौटी पर खरा उतरइ के लेल जे तत्व, साधना आउ मेहनत के जरूरत हइ, ओकरा रेखांकित कइल गेल. खासके लोकभासा के प्रभाव, तागत आउ ओकर चिरस्थायी जीवंतता के उजागर करइत रचनाकार के अप्पन माटी से रचना निकासे के जे चरचा होल ऊ आझ के रचनाकार के जरूरत हइ. ऊ मंथन रचनाकार के लेखनी के प्रखर बनाबइ में मार्गदर्शन के काम करत.
 गोष्ठी में पहुंचल कथाकार, आलोचक आउ सारथी पत्रिका के कार्यकारी संपादक नरेन जी रचना करइ के टिप्स देलका तऽ मगध विश्वविद्यालय के मगही विभागाध्यक्ष डॉ. भरत सिंह मगही पत्रकारिता के इतिहास के चरचा करइत रचनाकार के आत्ममुग्धता त्यागे आउ रचना के स्तर सुधारे के बात कहलका.
नरेन जी कहलका कि रचनाकार के समर्थ द्रष्टा होवे के चाही. ऊ जेतना गहन दृष्टि से समाज के जीवन आउ परिस्थिति के देखथिन ओतने बेस उनखर रचना होतइ. माटी से जुड़के, परिवेश में बइठ के ही रचनाकार लोकभासा के समर्थ रचना करइ में सक्षम हो सकऽ हथिन. ऊ कहलथिन कि जहां तलुक यश आउ सम्मान के बात हइ तऽ लोकभासा के रचनाकार के भी ओतने ऊंचगर सम्मान आउ ख्याति मिलऽ हइ जेतना दोसर भासा के. एकर अनेगन बानगी हइ. बानगी के तौर पर ऊ रविंद्रनाथ टैगोर के साहित्य, फिलिम निदेशक सत्यजीत रे के उपलब्धी के रेखांकित करलका. कबिलाई डीस भासा में उत्कृष्ट रचना लिख के बड़गर मुकाम हासिल करइ वला चिन्मा चेबे आउ गैबियल गार्सिया जइसन रचनाकार के उदाहरण देलथिन. ऊ रचना के मांजे आउ तराशे के काम लगन से करइ आउ बार-बार करइ के जरूरत बतइलका. नरेन जी आगू कहलका कि हमन्हीं के दोसर आउ विदेशी के आधुनिकता आउ चिंतन के पीछू नञ् भटके के चाही. हम जे जीवन जी रहलूं हे, ऊ जीवन के प्रभावित करइ वला जे शक्ति हइ, ओकरा रचना के प्लाट बनाबल जाए. ई उजागर करइ के चाही कि ऊ केतना समाज के जीवन के प्रभावित कर रहल हे आउ ओकर कि परिणाम हइ? चाहे ऊ राजनीति रहइ इया सामाजिक विसंगति ईया विद्रूपता. ई कहलका कि लोकभासा आउ लोकसंस्कृति के जड़ समाज में बड़ी गहराय तक पेसल रहऽ हइ. जे कालांतर में भी जल्दी लुप्त नञ् होबऽ हइ. समाज में बेटी के शादी आउ कय गो रीति-रिवाज के उदाहरण देलका. संस्कृति के मानव सभ्यता के विकास के मीटर से देखल जा सकऽ. उपभोक्तावादी संस्कृति आझ के विकास के औजार हइ पर ई चुनौती के सामना करइत समाज के लोकसंस्कृति आउ भासा के जीवंत रखइ के काज हमन्हीं के हइ. उपभोक्तावादी संस्कृति आवे से हम्मर माटी के संस्कृति पर कोय असर नञ् पड़तइ काहे कि केतनो बड़का सुनामी आ जा हे पर जे घास के जड़ माटी में पेसल रहऽ हइ ओकर कुच्छो नञ् बिगड़ऽ हइ.
आगू नरेन जी रचनाकार के समर्थ रचना करइ के लेल अध्ययन करइ पर बल देलका, अध्ययन के मनन, विष्लेशन आउ चिंतन से प्रखरता आवऽ हइ. ऊ विश्वस्तर के मानवीय संवेदना, सेवा आउ स्वच्छ चिंतन के विभिन्न धारा के अनुवादित किताब के पढ़इ के अपील करलका.
मुख्य वक्ता डॉ. भरत सिंह मगही भासा-साहित के विकास में पत्र-पत्रिका के भूमिका उ जोगदान पर विस्तृत चरचा कइलका. पत्रकारिता के शुरूआती दौर के जार्ज ग्रिगर्सन के एशियाटिक जनरस, उदंड मार्तंड, म़ॉडर्न रिव्यू, बिहार बंधु, हरिश्चंद मैगजीन, कमलेश रामायण, सरस्वती पत्रिका में मगही के रचना छपइ के इतिहास बतइलका. केशव मिश्र, बालगोविंद मिश्र, चतुर्भुज दास, परिहारी बाबा, भिक्षु काश्यप, रामबालक सिंह बालक के पत्रकारिता के चरचा कइलका. मध्यकाल आउ ओकर बाद के पत्रकारिता पर प्रकाश डालइत सतीश कुमार मिश्र के मगधाग्नि, सुरेंद्र शिल्पी, सुरेश विमल के लक्ष्मी पत्रिका, 1978 में योगेश्वर प्रसाद सिंह योगेश आउ राम नगीना सिंह मगहिया के संपादन में छपइ वाला भोर के चार अंक, डॉ. रामनंदन आउ श्रीकांत शास्त्री के पान में निकसे वला बिहान पत्रिका के एक सौ बतीस अंक, अलका मागधी के दू सौ पच्चीस से भी जादे अंक आउ अभी तलुक निरंतर चलइ के बात कहते सउ के जोगदान पर के चरचा कइलका. सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय, दिल्ली से प्रकाशित आजकलपत्रिका लमें 1944 में सम्पत्ति आर्याणी के मगही व्याकरण के आलेख छपइ के बात बतइलका. मगही के विकास में अखबार के जोगदान के रेखांकित कइलका. आर्यावर्त्त, जनशक्ति, दिल्ली से निकसइ वला इंद्रप्रस्थ भारती आउ दोसर-दोसर अखबार में मगही के रचना छपइ के बात कहलका. श्रीकांत शास्त्री, प्रो. केसरी कुमार, मथुरा प्रसाद नवीन के रचना बराबर अखबार में छपइ के जानकारी देलका . ऊ ई मानलका कि अखबार मगही के विकास के लेल पहले भी सार्थक प्रयास कइलक हल आउ अखनी भी कर रहल हे. प्रभात खबर अखबार के गया एडिशन में नवादा जिला पन्ना पर चल रहल मगही के अंगना सेआउ हिन्दुस्तान अखबार के सभ्भे एडिशन में हरेक बुध के छपइ वला अरझी-परझी कॉलम के चर्चा करइत एकरा मगही के विकास के दमदार पहल बतइलका. एकरा से जन-जन में मगही के प्रति रूची जगई आउ पढ़इ लेल प्रेरित होवे के बात कहलका. लेकिन ऊ रचनाकार के सचेत भी कइलका कि कहंइ मगही अखबार के बाजारवाद के चपेट में नञ् आ जाए. मगही के अप्पन विरासत, शैली आउ शिल्प खतम नञ् भे जाए. ऊ एकरा बचावे लेल रचनाकार के सजग रहे आउ मगही के सुगंध बिखेरे वला रचना लिखइ संदेश देलका. स्तरहीन रचना आउ हिन्गलिंश से लैश मगही लिखइ से मना कइलका.
 कथाकार व सारथी पत्रिका के संपादक श्री मिथिलेश कहलका कि अखनी मगही के विकास के चरम काल हे. अखनी मगही सभ्भे विधा में समान तरह से फल-फूल रहल हे. रचनाकार दम लगाके मगही के समृद्ध कर रहला हे. किताब पर किताब निकस रहल हे. पत्र-पत्रिका छप रहल हे.  ऊ नवोदित रचनाकार के रचना लिखइ के लेल उत्साहित कइलका आउ हर तरह के सहजोग देबइ के विश्वास दिलइलका. मगही भासा के विकास में अखिल भारतीय मगही मंडप के 1967 से लगल रहे के बात कहइत सारथी पत्रिका के प्रमाण देलका. ऊ प्रभात खबर के मगही के अंगना से कॉलम के सराहना कइलका आउ संपादक, ब्यूरो चीफ के कोटिशः धन्यवाद देलका. ऊ कहलका कि जनमानस तक भाषा के पहुंचाबइ के जे काज ये एगो पत्रिका नञ् कर पावऽ हइ ओकरा से कय गुणा आगू बढ़ि के ऊ काम एक दिना में अखबार के एक कॉलम कर जा हइ.
 अतिथि जिला पार्षद राजीव कुमार मगही के राजनैतिक संरक्षण देवे के जरूरत के रेखांकित कइलका. अन्य कय गो वक्ता अप्पन-अप्पन विचार रखलका. अध्यक्षता शेखपुरा के वरिष्ठ साहितकार रामचंद्र जी आउ संचालन श्री मिथिलेश अपने कइलका. दोसर सत्र में कवि सम्मेलन होल जेकरा में परमेश्वरी, जयप्रकाश, उदय कुमार भारती (हम, शफीक जानी नादां, डॉ. किरण कुमारी शर्मा, जयनंदन, शंभु विश्वकर्मा, अशोक समदर्शी, प्रवीण कुमार पुटुस, दशरथ, नवलेश कुमार, कृष्ण कुमार भट्टा, उमेश प्रसाद सिंह उमा, नरेश रजपुरिया, डॉ. शंभु मगहिया, परमानंद, जटाशंकर पाठक, नुनु प्रसाद सिंह सहित नवादा, गया, शेखपुरा आउ लखीसराय के कवि कविता पाठ कइलका. संचालन नागेंद्र शर्मा बंधु जी कइलथिन.
  प्रभात खबर में मगही के अंगना कॉलम से मगही के सभ्भे विधा के रचना हर दिन छपइ से मगही के नया दशा-दिशा मिलइ आउ जन-जन तक मगही के पहुंचइ के बात सभ्भे मुक्त कंठ से कहलथिन. मोका पर प्रभात खबर के सम्मानित कइल गेल. काजकरम में आवे के लेल प्रभात खबर के नवाद ब्यूरो प्रमुख अजय कुमार के बड़ी लालसा से आमंत्रित कइल गेल हल पर ऊ नञ् अइलथिन. उनखर प्रतिनिधि के रूप में सम्मान के उदय भारती (हम) ग्रहण कइलिअइ.
     काजकरम में अखिल भारतीय मगही मंडप के  कारकारिनी के फेन से गठन करल गेल. नागेंद्र शर्मा बंधु के अध्यक्ष, नरेश प्रसाद सिंह के उपाध्यक्ष, नवलेश के सचिव, विक्रम के संयुक्त सचिव, श्री कांत के संगठन सचिव आउ डॉ. शंभु मगहिया के प्रवक्ता मनोनीत कइल गेल.
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मगह के आयोजन

   पार्वती पहाड़ पर विरासत बचाओ अभियान आउ मगही काजकरम
           
        23 नवंबर 2014 के काशीचक के पारवती पहाड़ पर विरासत बचाओ अभियान के तहत मगह के धरोहर बचाओ आउ मगही काजकरम के आयोजन होल हल। साहितकार रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर के अध्यक्षता आउ मगही पत्रिका के संपादक धनंजय श्रोत्रिय के संचालन में ऊहां पहुंचल अतिथि अप्पन उद्गार रखलथिन। मुख्य अतिथि बौद्धिष्ट चाइनीज टेंपल नवनालंदा महाविहार के मैनेजमेंट सचिव भंते यू पन्यालिंकारा कहथिन कि मगही सउ भासा के जननी हे। बुध भगवान मगही बोललथिन हल। एकरे से कय भासा पैदा होलइ हे। मगही भासा के ई विरासत बतावइक एकरा बचावे के बात कहलथिन। विशिष्ट अतिथि मगध विश्वविद्यालय, बोधगया के संयुक्त परीक्षा नियंत्रक डॉ. भारत भूषण कहलथिन कि लोग अप्पन संस्कृति आउ विरासत के भूल रहला हे। एकरा बचावे लेल संकलप लेवे के जरूरत हे। रामरतन सिंह रत्नाकर कहलथिन कि लोकभाषा, लोक संस्कृति आउ पुरावशेष की जानइ विना शिक्षा आउ संस्कार नञ् आवऽ हइ। मगही ममता, प्यार, समंवय के भाव के पुरान भासा हइ।  विरासत बचाओ अभियान के संयोजक डॉ. अशोक प्रियदर्शी कहलका कि मगध के धरोहरे में देश- दुनिया के इतिहास छिप्पल हे। अनदेखी आउ उपेक्षा के कारन इतिहास धूल-धुसरित हइ। एकरा बचावे लेल आगे आवे के जरूरत हइ।
 ई मोका पर मगही पत्रिका के रजत जयंती अंक के लोकार्पण कइल गेल। काजकरम में प्रोफेसर शिवेंद्र नारायण सिंह, समंवयक मिथिलेश कुमार सिन्हा, सहसमंवयक राजेश मंझवेकर, स्वागाध्यक्ष नरेंद्र प्रसाद सिंह, युगल किशोर प्रसाद, डॉ. किरण शर्मा, जयनंदन आदि संबोधित कइलथिन।
दोकर सत्र में गरगदह कवि सम्मेलन होल जेकरा में जयराम देवसपुरी, नरेंद्र प्रसाद सिंह, दयाशंकर बेधड़क, चितरंजन चैनपुरा, राजकिशोर शाही, वीणा मिश्रा, प्रवीण कुमार झा, अरूण साथी, गोपाल निदोर्ष, सावन कुमार, डॉ. भागवत प्रसाद, रामनरेश सिंह, कृष्ण कुमार भट्टा, डॉ. संजय कुमार, सच्चिदानंद सितारेहिंद, दशरथ वगैरह कवियन कविता पाठ कइलथिन।
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 मगह के आयोजन
             
                        रूपौ में होल कवि के जुटान आउ सम्मेलन
           
             14 दिसंबर 2014 के नवादा के रोह-रूपौ माय चामुंडा देवी मंदिर में धरोहर बचाव अभियान के तहत मगही कवि सम्मेलन होल जेकरा में मगही भाषा जिला के कवि आउ साहितकार पहुंचलथिन. काजकरम के संयोजक नरेंद्र प्रसाद सिंह, सहसंयोजक सतोश मगहिया, स्वागताध्य महेश्वरी सिंह, सह स्वागताध्यश्र प्रो. संजय कुमार हलथिन. अध्यक्षता रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर आउ संचालन मगही पत्रिका के संपादक धनंजय श्रोत्रीय कइलथिन. मुख्य अतिथि शंकराचार्य स्वामी तारकेश्वरानंद सरस्वती जी महाराज आउ  विशिष्ट अतिथि अनूप प्रसाद यादव जी हलन. कूरहर दीप जला के काजकरम के शुरू होल. पहुंचल नेता मोहम्मद कामरान, मनोहर पासवान, मुखिया मंजू देवी काजकरम के सराहना कइलन आउ मगही लेल ई प्रयास के वंदनीय बतइलन. मगही के उत्थान के संकलप लेल गेल. मगही के गर्व के साथ बोलइ के निहोरा कइल गेल. मंच कवि के स्मृति चिन्ह आउ अंगवस्त्रम देके सम्मानित कइल गेल.
काजकरम के शुरूआत जयराम देवसपुरी शहीद के विधवा के करूण गीत से देलियो अपन सोहाग कुर्बानी गे- से शुरू होल. कवि नरेंद्र प्रसाद सिंह, चितरंजन चैनपुरा, धीरेंद्र धीरू, डॉ. रविशंकर शमार्, राजेश मंझवेकर, सुरेंद्र सिंह सुरेंद्र, प्रो. नवल किशोर शमार्, ओंकार शर्मा, डॉ. ओंकार निराला, डॉ. सच्चिदानंद प्रेमी, डॉ भागवत प्रसाद, वीणा मिश्रा, प्रवीण कुमार पंकज, मिथिलेश कुमार सिन्हा विमला देवी, निशा कुमारी, राधा रानी, प्रो. अवध किशोर पांडेय, गोपाल निर्दोष, सच्चिदानंद सितारेहिंद रामभजन शर्मा बटोही आउ जौरे खूमे कवियन काव्य पाठ कइलथिन. सहसंयोजक सतीश मगहिया धन्यवाद ज्ञापन कइलथिन.
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मगह के आयोजन
                                साहितकार वीणा मिश्रा के सम्मान
            
            21 दिसंबर  के वीणापाणी इंटर महाविद्यालय, बुधौल, नवादा में साहितकार वीणा मिश्रा के सम्मान में मगही पत्रिका परिवार के तरफ से समारोह आउ उनखर द्वार पर जाके पूजा करइ के काजकरम होल. मगही पत्रिका के संपादक आउ काजकरम के संयोजक धनंजय श्रोत्रीय कहलथिन  कि मगही पत्रिका के साहितकार के घरे जाके ई सम्मान देबइ के काजकरम हइ. ईले लेल एकर नाम द्वार पूजा देल गेल हऽ. वीणा मिश्रा के मगही भासा लेल काज करइ के ले सम्मान देल गेल. पहुंचल मुख्य वक्ता मगध  विश्व विद्यालय के मगही विभागाध्यक्ष डॉ. भरत सिंह कहलका कि मगही जन-जन के पुरान भासा हे. अउ मगहे नञ् बलुक देश के दोसर राज में भी एकर विस्तार के काम हो रहल हे. पिछलका 50-60 बरिस में ई बेस समृद्ध होल हे. साहित के सभ्भे विधा में संकलन तइयार होल हे.  दोसर वक्ता गण कहलथिन कि नवादा मगही भासा लेल उपजाऊ जमीन रहल हे. कय गो लेखक आउ कवि नवादा के धरती पर पैदा होलन आउ मगही के दशा-दिशा देलका. मगही पत्र-पत्रिका आउ किताब भी ईहां से निकस रहल हे.  काजकरम में डॉ. ओंकार निराला, डॉ. शिवेद्र नारायण सिंह, डॉ. संजय कुमार, राजेश मंझवेकर, डॉ. रीना कुमारी, चितरंजन चैनपुरिया, नरेंद्र प्रसाद सिंह, नीशा कुमारी, राधा रानी, ओंकार शर्मा, शैलेद्र कुमार प्रसून, प्रो. अवध किशोर प्रसाद, युगल किशोर मिश्र आउ कय गो कवि कविता सुनइलथिन. धन्यवाद देबइत वीणा मिश्रा कहलथिन कि ऊ अनथक मगही के सेवा करइत रहतन. ई सम्मान खाली हम्मर नञ् बलुक मगही के ऊ सभ्भे रचनाकार के हे जे मगही के सेवा में दिन-रात लगल हथिन.
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रचना साभार लेल गेल

मगही पत्रिका, सारथी(मगही पत्रिका), मगही संवाद, पाटलि।

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